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Monday, February 14, 2011

भीगं जाती हैं पलकें हमारी कभी-कभी तन्हाई मैं,
डरते हैं की ये कोई और जान न ले,
और भी डरते हैं की ऐसे मैं अचानक,
मेरी आँखों से कोई तुम्हे पहचान न ले.......
आखों में रहे दिल में उतर कर नहीं देखा,
कश्ती के मुसाफिर ने संमदर नहीं देखा,
कहते हैं पत्थर मुझे मेरे चाहने वाले,
पर अफ़सोस कभी मुझे छू कर नहीं देखा ....
उतरे जो ज़िन्दगी तेरी गहराइयों में हम,
महफिल में रहकर भी रहे तनहाइयों में हम,
दीवानगी नहीं तोह और क्या कहे,
इंसान ढूंढते रहे पर्चायिओं में हमे .............
हम फिर बेवफा से रिश्ता बना बैठे,
फिर उनकी सादगी से धोखा खा बैठे,
पत्थरों से ताल्लुकात है अपना,
फिर भी शीशे के घर बना बैठे........
आना मेरी कब्र पे दो फूल चढा देना,
अगर रोना न आये तोह गम में मुस्कुरा ही देना,
हम से हुई भूल की आपकी महफिल में आ बैठे,
ज़मीन के ख़ाक थे आप तो और हम आसमा से दिल लगा बैठे.

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