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Tuesday, February 15, 2011


मन - मृत्यु

तन और मन अनन्य थे, रस्सी के दो बल की तरह। तन कहता, ’मन मेरा प्राण है।‘मन कहता, ’तन मेरा जीवन है।‘
नेक अनबन हुई कि बुरी ठनी, उन दोनों में। बडबोलेपन से तू-तू मैं-मैं और वाकयुद्ध।.... दोनों की आंखों में लहू के डोरे खिंच गए थे।
तन ने होंठों पर हेय लाते हुए मन को दुत्कार दी- ’परजीवी मन‘, तुम मुझे छोड कर कहीं चले जाओं। सारा-सारा दिन गेंद बनाए हों। कभी यह करो, कभी वह करो। कभी यहां कभी वहां। एक पैर घर मे, तो एक बाहर । आकाश की उडाने, धरती की नापें। निन्यानवे के फेर मुझे घेरे रहते है। रातों की नींद हर ली है तुमने। जीना मुहाल किए हो।‘ ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए मन सक्षम था। पर यह सोच कर कि तन की ’मैं‘ को मारना है, वह खून के घूंट पी कर रह गया। बदसलूकी के प्रतिकार वह तन से दूर हो गया था। बिन मन, तन जडीभूत। वह अबनिश चारपाई पर पडा रहे। उसकी सब चाहें, महत्त्वाकांक्षाए और लालसाएं लप-लप सिमट गई। रूखाई, वीरानी, रिक्तता सुरसा हो गई।
उसका प्रातकालीन भ्रमण, व्यायाम, नहाना धोना जैसे नित्य कर्म छूट गए थे। लिखना, पढना संगोष्ठियों में भाग लेना जैसे सृजनात्मक आयाम अतीत बन गए थे। जीवनोन्मुख होने की हजार कोशिशें करता, लेकिन ढाक के वही तीन पात। म नही तो उसका सारथी था। दिन, हफ्ता, महीने, साल गए। तन खाट पर पडा-पडा खाट से लग गया था। और एक दिन सुर्खी थी, देश के एक उद्भट विद्वान की मन-मृत्यु हो गई।

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